Tuesday, May 26, 2009

इन्द्रियों की बोधशक्ति बढ़ाने के सम्बन्ध में श्रीश्रीठाकुर की बातें

श्री श्री ठाकुर :- आँख, कान, नाक, त्वचा, जिह्वा सबकी अनुभव शक्ति को बढ़ा देना चाहिए। तभी दूरदर्शन, दूरश्रवण, दूर से घ्राण पाना इत्यादि स्वाभाविक हो जायेंगे। इसमें अलौकिकत्व की कोई बला नहीं है। इन्द्रियों की बोधशक्ति बढ़ जाती है, उसे ही मनुष्य अतीन्द्रिय कहते हैं। नाम-ध्यान अधिक करने एवं हर इन्द्रिय की सूक्ष्म बोधशक्ति को बढ़ाने की चेष्टा करने से वे सभी सहज हो जाते हैं। जैसे, दृष्टि प्रसारित कर दूर की किसी चीज को अच्छी तरह देखने की चेष्टा की, बाद में तुमने निकट जाकर देखा कि तुम्हारा अनुमान ठीक है या नहीं। इस प्रकार दूर की चीजों को देखते और इस प्रकार मिलाते हो। श्रवण, घ्राण इत्यादि के विषय में भी इसी प्रकार चेष्टा करते हो। देखना, सुनना, सूंघना एक ही साथ कितनी दूरी से कितना क्या कर सकते हो उसका भी अनुशीलन करना चाहिए, इसप्रकार अनुशीलन करते रहने से देखोगे कि तुम बिल्कुल दक्ष हो उठोगे। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य आँखें बंद कर किसी के शरीर के चर्म को स्पर्श कर सहज में ही कह सकता है कि वह व्यक्ति कौन है। प्रत्येक इन्द्रिय की बोधशक्ति जिससे बढे उस ढंग के नाना प्रकार के खेल-कूद का अनुसन्धान करना चाहिए और बच्चों में उसका प्रचार-प्रसार करना चाहिए। यह सब स्वयं करना चाहिए और मनुष्य के द्बारा भी कराना चाहिए। मनुष्य को कठिन अवस्था में छोड़ देना चाहिए। उस अवस्था में वह क्या करता है, कैसे करता है, यह देखना चाहिए। अपनी प्रत्येक इन्द्रिय शक्ति और संभाव्यता को विकसित कर देने का एक झोंक भी रहता है, उसकी उद्भावनी बुद्धि भी बढ़ जाती है। किसी कठिन अवस्था में पड़ने पर किस प्रकार क्या करना है, यह बुद्धि उसके माथे में काम करने लगती है। इसलिए मैं जान-बूझकर एक-एक व्यक्ति पर एक-एक भार देता हूँ। किसी को संग्रह करने कहता हूँ, चाहे उस चीज की मुझे जरुरत रहे या नहीं; फिर भी उसे संग्रह करने में जिन सब प्रतिकूलताओं का अतिक्रमण करना होगा उसके जरिये जो शिक्षा मिलेगी, वही मेरे लिए लाभ होगा। मैं कुछ करने के लिए कहूँ या नहीं क्रमागत जो मेरे लिए स्वतः स्वेच्छ भाव से आनंदित हो कठिन से कठिनतर दायित्व ग्रहण कर उद्यापन करता है वह बढ़ता ही है। दुनिया में बुद्धिमान वही है जो इष्टस्वार्थपूरणी ब्रत में अपने ऊपर सर्वदा भारी बोझ लेता है। उसका फल यह है कि शौक से उतना बोझ वहन करने में अभ्यस्त हो जाता है। खूब आवश्यकता होने पर उसे विराट बोझ प्रतीत नहीं होगा। अक्लांत परिश्रम करने पर भी उसे ऐसा प्रतीत होगा कि वह बहुत आराम में है। वह महाप्रलय में भी बचे रहने की शक्ति अर्जन करेगा। ऐसे लोगों के आश्रय में कितने व्यक्ति बच जाते हैं। यदि धर्म का अर्थ बचना-बढ़ना है तो धर्म अनुशीलन के मामले में इन सब चीजों की आवश्यकता है।
--: श्री श्री ठाकुर, आलोचना-प्रसंगे-3, पृ-सं- 73

Thursday, May 7, 2009

निःवीर्यता धर्म नहीं

तेजस्विता रहने पर दस घंटा का काम एक घंटा में किया जा सकता है। दस लोगों का काम एक व्यक्ति कर सकता है। मुझे यह देखने की इच्छा होती है कि असंभव को सम्भव कैसे किया जा सकता है। यह है मेरे जीवन का खेल। तुमलोगों में यदि ऐसी तेजस्विता देखता हूँ तो मुझे बड़ा अच्छा लगता है।
बस एक बार में काम ख़त्म कर डालो, negativism (नेतिवाचक भाव) धूरिसात हो जाये। जैसे भी हो काम करना है। हमारा mood (मनोभाव) ऐसा होना चाहिए कि चाहे कितना भी बाधा-बिघ्न, दुःख-कष्ट, अभाव-असुविधा का सामना क्यों न करना पड़े, उसे दृड़ होकर fightout हम निश्चित रूप से करेंगे ही। बचने-बढ़ने में जो बाधक है उसे नाश कर परिवार, परिवेश सहित जीवन और वृद्धि के पथ पर आगे बढ़ना ही धर्म है। निःवीर्यता धर्म नहीं है। जीवन की तपस्या ही है बाधाओं को अतिक्रम कर अमृत पथ पर अग्रसर होना। इसीलिए धर्म के साथ अज्ञता, दारिद्र्य, स्वार्थान्धता, रोग, व्याधि, असाफल्य, आलस्य, दुर्बलता और प्रवृति, अभिभूति की कोई संगति नहीं।
--: श्री श्री ठाकुर, आलोचना प्रसंग, चतुर्थ खंड , पृ. सं.- 86

Motor-sensory-co-ordination

जब जो काम करने को है चटपट उसी समय कर लेना चाहिये अन्यथा धोखा खाओगे। motor-sensory-co-ordination ( बोधस्नायु व कर्मस्नायु की संगति ) नहीं रहने पर जीवन का output (उत्पादन) नहीं बढ़ता है। इसके अलावा शरीर मन को balance (संतुलन) के लिए भी motor-sensory-co-ordination (संहति) की आवश्यकता पड़ती है। उस co-ordination (संहति) को पूरी तरह लाने के लिए कुछ कायिक परिश्रम का प्रयोजन होता है। उससे शरीर स्वस्थ रहता है। मन भी चंगा रहता है। माथा भी तरोताजा बना रहता है। उससे मस्तिष्क का कार्य भी अच्छी तरह हो सकता है। नीरसता दूर हो जाती है। चाहे जो भी हो आज ही काम ख़त्म कर डालो।
--: श्री श्री ठाकुर, आलोचना-प्रसंग, चतुर्थ खंड, पृ.सं.-85