Thursday, October 2, 2008

प्रश्न

यजन, याजन, इष्टभृति करने वाले लोगों को भी कम मुसीबत उठाते नहीं देखा जाता है?
श्री श्री ठाकुर :- सबके जीवन में मुसीबत आती है, किंतु उस समय बुद्धिभ्रष्ट हो जाय तो और भी सत्यानाश हो सकता है। जो यजन, याजन, इष्टभृति करता है उसका दिमाग बहुत कुछ ठीक रहता है। इसलिए विपत्ति-आपत्ति अधिक पेंचीदी नहीं हो पाती। यजन, याजन, इष्टभृति करना एवं इष्टचलन से चलना माने है मुसीबत को अतिक्रम करने के पथ पर चलना। मनुष्य के जीवन में मुसीबत ही नहीं आई हो, ऐसा क्या कहीं होता है? वह उसके विगत जीवन का कर्मफल है ; अज्ञानता है, प्रवृति चलन है, परिवेश के साथ योगसूत्र है- इन सब नाना छिद्रों के जरिये दुःख टपक पड़ते हैं उन्हें बंद करने के लिये ही यजन, याजन, इष्टभृति है। इहकाल परकाल के लिये, औरों के लिये, एक शब्द में सब काल के मंगल के लिये ही यजन, याजन, इष्टभृति पालनीय है। इन त्रयी में से किसी को भी यदि क्षुन्ण रखते हैं तो उतनी समता खो बैठोगे।
--: श्री श्री ठाकुर, आ.प्र.-3, पृ.सं.-6

शैतान या ग्रह का प्रभाव

जो नित्यदिन नियमित रूप से यजन, याजन, इष्टभृति करता है उसके चेहरे पर एक द्युति दिख पड़ती है। वह द्युति ही कह देती है कि वह परमपिता की सीमा में है। इसलिए शैतान या ग्रह उस पर कोई बड़ा आघात देकर घायल नहीं कर सकता।
--: श्री श्री ठाकुर, आलोचना प्रसंग-3, पृ सं- 6

Monday, September 22, 2008

अमृत अमृत

जो वास्तव में इष्टप्राण होते हैं मृत्युकाल में इष्ट का स्मरण-मनन अव्याहत रहता है। फ़िर भी मनुष्य के लिए मृत्यु बड़ी ही वेदनादायक होती है। मृत्यु के कारण ही मनुष्य को चिरकाल के लिए खो देना पड़ता है। उसका अस्तित्व रहने के बावजूद भी उसके साथ मेरा कोई प्रत्यक्ष योगायोग नहीं रहता। यह बात ही बड़ी मर्मान्तिक है इसलिए मनुष्य अमृत-अमृत करते हुए पागल होता है। किस तरीके से मृत्यु को निःशेष करके वह अमर होगा यही उसकी कल्पना रहती है। मौत के हाथों से बराबर मार खाते रहने पर भी पराजय स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत नहीं है। मरता है फिर भी वह कहता है 'अमृत अमृत' । मनुष्य का जीवन ऐसी चीज है कि उसे अमृत को पाना ही होगा। जबतक उसे नहीं पाता है तब तक वह शांत नहीं होगा। इसलिए स्मृतिवाही चेतना यदि हम लाभ कर सकें तो बहुत कुछ मृत्यु का अतिक्रमण कर सकेंगे, यह कहा जा सकता है।

आलोचना प्रसंग -३, पृ.स.-5